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असंगठित कामगारों की चुप्पी: भारत की लोकतांत्रिक आत्मा पर सवाल

भूमिका

जब भी भारत के विकास की बात होती है, तो जीडीपी, डिजिटल इंडिया, बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटीज़ जैसे शब्द चर्चा में छा जाते हैं। लेकिन क्या कभी उस वर्ग की बात होती है जिसने असल में इस देश को अपने खून-पसीने से खड़ा किया? निर्माण मजदूर, घरेलू सहायक, खेतिहर मजदूर, सफाई कर्मचारी, दिहाड़ी श्रमिक और प्रवासी कामगार—ये वे असंगठित कामगार हैं जो भारत की अदृश्य शक्ति और असली निर्माता हैं।

फिर भी, इनकी आवाज़ सत्ता के गलियारों में गूंजती नहीं, मीडिया की सुर्खियों में आती नहीं, और न ही नीति-निर्माण की मेज़ पर इन्हें कोई स्थान मिलता है। यह चुप्पी अब केवल सामाजिक अन्याय नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा सवाल है।

भारत का असंगठित कामगार : एक खामोश बहुमत

भारत की कुल कार्यशील जनसंख्या का लगभग 90% हिस्सा असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है। ये श्रमिक हमारे खेतों, सड़कों, फैक्ट्रियों, घरों, दुकानों और निर्माण स्थलों पर दिन-रात काम करते हैं—बिना किसी स्थायित्व, सुरक्षा या गरिमा के।

इनके पास नहीं है:

• नियमित रोजगार अनुबंध

• स्वास्थ्य बीमा या सामाजिक सुरक्षा

• पेंशन या भविष्य निधि

• मजदूरी की गारंटी या सम्मानजनक कार्यस्थल

ये लोग केवल ज़िंदा रहने के लिए काम करते हैं—बिना किसी अधिकार के, बिना किसी आवाज़ के।

श्रमिक नहीं, केवल संसाधन?

नीति-निर्माता और कॉरपोरेट जगत अक्सर इन्हें “ह्यूमन रिसोर्स” कहते हैं, पर असल में इन्हें इंसानी मशीन समझ लिया गया है।

कोविड-19 महामारी के दौरान जब लाखों मज़दूर पैदल घर लौटे, तब भी उनकी पीड़ा को संवेदना की बजाय प्रशासनिक समस्या के रूप में देखा गया।

ये मजदूर समाचार बनते हैं, लेकिन नीति नहीं।

‘विकास’ और ‘शोषण’ का गठबंधन

भारत में विकास परियोजनाएं—SEZ, कॉरिडोर, हाइवे, स्मार्ट सिटीज़—अक्सर हज़ारों परिवारों के विस्थापन और अस्थायी मजदूरी को जन्म देती हैं।

• भूमि अधिग्रहण में मुआवज़ा नहीं,

• रोजगार में स्थायित्व नहीं,

• और जीवन में सुरक्षा नहीं।

इस विकास मॉडल ने असंगठित वर्ग को आर्थिक गुलामी की ओर धकेला है।

मजदूरी, मानवीय गरिमा और अस्मिता का संकट

भारत में न्यूनतम मजदूरी कानून है, लेकिन ज़मीन पर हकीकत कुछ और ही है।

• लाखों श्रमिक ₹200-₹300 रोज़ कमाने को मजबूर हैं।

• महिला श्रमिकों को तो और भी कम वेतन, ज़्यादा काम और शून्य सुरक्षा मिलती है।

• घरेलू कामगारों और खेतिहर महिलाओं की तो कोई औपचारिक गणना भी नहीं होती।

क्या यह आर्थिक लोकतंत्र है या आधुनिक दासता?

संविधान और लोकतंत्र की असली परीक्षा

संविधान समता, गरिमा और आजीविका के अधिकार की गारंटी देता है। लेकिन यदि 90% श्रमिकों के पास प्रतिनिधित्व, यूनियन, सुरक्षा या कानूनी आवाज़ नहीं है—तो यह संविधान की प्रभावशीलता पर एक गंभीर प्रश्न है।

क्या हमारा लोकतंत्र केवल संगठित, शहरी, पढ़े-लिखे वर्ग तक सीमित है?

चुप्पी क्यों? आवाज़ कहाँ है?

• कामगारों के पास न समय है, न संसाधन, न नेटवर्क

• राजनीतिक दलों और मीडिया के लिए ये वर्ग वोट बैंक हैं, प्राथमिकता नहीं

• समाज में भी इनके मुद्दे टुकड़ों में बंटे हुए हैं—संगठित नहीं

यह चुप्पी अगर साज़िश नहीं, तो गहरी उपेक्षा अवश्य है।

समाधान की दिशा: संघर्ष और संवाद दोनों ज़रूरी हैं

1. e-Shram पोर्टल और कल्याण योजनाओं का ठोस क्रियान्वयन

2. स्थायी रोजगार नीति और न्यायिक मजदूरी निगरानी तंत्र

3. महिला श्रमिकों के लिए गरिमा, सुरक्षा और कानूनी संरक्षण

4. असंगठित यूनियनों को वैधता और राज्य का समर्थन

5. प्रवासी श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा और डेटा निगरानी

6. श्रमिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार

निष्कर्ष

भारत अगर वास्तव में विकसित राष्ट्र बनना चाहता है, तो उसे सिर्फ जीडीपी नहीं, कामगारों की गरिमा को भी प्राथमिकता देनी होगी।

असंगठित कामगारों की चुप्पी को तोड़ना सिर्फ एक आर्थिक ज़रूरत नहीं, बल्कि हमारे लोकतंत्र की सामाजिक – राजनीतिक ज़िम्मेदारी है।

“जब तक आख़िरी मज़दूर को न्याय नहीं मिलता, तब तक भारत का लोकतंत्र अधूरा है।”

“श्रम का सम्मान, लोकतंत्र का आधार है।”

“हम असंगठित नहीं, असली भारत हैं।”

श्रमेव जयते ! जय कामगार ! जय हिन्द ! 

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